दो संन्यासी थे। एक वृद्ध और एक युवा ।
दोनों साथ रहते थे। एक दिन महीनों बाद वे अपने
मूल स्थान पर पहुंचे। जो एक साधारण-
सी झोपड़ी थी। किंतु जब दोनों झोपड़ी में पहुंचे
तो देखा कि वह छप्पर भी आंधी और हवा ने
उड़ाकर न जाने कहां पटक दिया। यह देख युवा संन्यासी बड़बड़ाने लगा- अब हम प्रभु पर क्या विश्वास करें? जो लोग सदैव छल- फरेब में लगे रहते हैं, उनके मकान सुरक्षित रहते हैं।
एक हम हैं कि रात-दिन प्रभु के नाम की माला जपते हैं और उसने हमारा छप्पर ही उड़ा दिया। वृद्ध संन्यासी ने कहा- दुखी क्यों हो रहे हो? छप्पर उड़ जाने पर भी आधी झोपड़ी पर तो छत है। भगवान को धन्यवाद दो कि उसने आधी झोपड़ी को ढंक रखा है। आंधी इसे भी नष्ट कर सकती थी, किंतु भगवान ने हमारे भक्ति भाव के कारण ही आधा भाग बचा लिया। युवा संन्यासी वृद्ध संन्यासी की बात नहीं समझ सका। वृद्ध संन्यासी तो लेटते ही निद्रामग्न हो गया, किंतु युवा संन्यासी को नींद नहीं आई। सुबह हो गई और वृद्ध संन्यासी जाग उठा। उसने प्रभु को नमस्कार करते हुए कहा- वाह प्रभु! आज खुले आकाश के नीचे सुखद नींद आई। काश यह छप्पर बहुत पहले ही उड़ गया होता। यह सुनकर युवा संन्यासी झुंझलाकर बोला- एक तो उसने दुख दिया, ऊपर से धन्यवाद! वृद्ध संन्यासी ने
हंसकर कहा- तुम निराश हो गए, इसलिए रातभर
दुखी रहे। मैं प्रसन्न ही रहा, इसलिए सुख
की नींद सोया ।
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