एक साधु था| वह नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहता था, सांसारिक बंधनों को तिलांजलि देकर वह एकाग्र भाव से ईश्वराधना में डूबा रहता था| एक दिन अकस्मात् उसके मन में विचार आया कि जब भगवान सबका नियंता (पालनकर्ता) है
तो आदमी को कर्म क्यों करना चाहिए| वैसे भी आदमी के कोई काम करने पर उसके अंदर कर्त्तापन का अहंकार पैदा होता है और अहंकार कैसा भी हो, व्यक्ति को नीचे गिराता है|
यह सोचकर उसने अपने दोनों हाथों की मुट्ठियां बंद कर लीं और अपने को पूर्णतया प्रभु की मर्जी पर छोड़ दिया| वह नदी के किनारे चट्टान पर जा बैठा और प्रभु के ध्यान में लीन हो गया| कुछ दिन बीत गए| आस-पास के लोगों ने देखा कि साधु ने इतने दिनों से न कुछ खाया है न पिया है तो वे उसके लिए खाना ले आए, पर वह खाता कैसे? उसकी मुट्ठियां जो बंधी थीं, लोगों ने इस कठिनाई को समझकर उसे स्वयं खाना खिला दिया| साधु को प्यास लगी| वह नदी की धारा के निकट गया और ज्यों ही चौपाए की भांति झुककर पानी पीने को हुआ कि उसके पैर उखड़ गए और वह पानी में बहने लगा, पर मुट्ठियां उसने तब भी नहीं खोलीं| पानी में डूबते- उतराते वह बेहाल हो गया और चट्टानों से टकराने
के कारण उसका बदन लहूलुहान हो गया| उसकी चेतना जाती रही| होश आया तो उसने पाया कि वह नदी के किनारे पड़ा है| शरीर इतना अशक्त (कमजोर) हो गया था कि उसके लिए आंखें खोलना भी कठिन हो गया| तभी कहीं से आवाज आई – ‘अरे मूर्ख, तू
बड़ा अज्ञानी है| तूने कर्म से मुंह मोड़ लिया, लेकिन यह नहीं सोचा कि अगर ईश्वर
की यही इच्छा थी कि आदमी कुछ भी काम न करे तो उसने उसे दो हाथ क्यों दिए? हाथ कर्म करने के लिए हैं और जो उनका इस्तेमाल नहीं करता, वह चोरी करता है|’ साधु ने अपनी भूल अनुभव की| उसने मुट्ठियां खोल दीं और उस दिन से पहले की तरह कर्ममय जीवन व्यतीत करने लगा|
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